- शकील अख्तर
अहमदाबाद में होना चाहिए और उसका हल निकलना चाहिए। वहां पहले दिन 8 अप्रैल को कांग्रेस वर्किंग कमेटी पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारक ईकाई (सीडब्ल्यूसी) की ही मीटिंग है। याद रखना चाहिए कि इससे पहले की दो सीडब्ल्यूसी की मीटिंग दिल्ली और बेलगावी में अध्यक्ष खरगे ने पार्टी की अन्दरूनी समस्याओं की गहरी पड़ताल की और जितनी सुना सकते थे उतनी खरी-खरी सुनाईं। गुटबाजी अकर्मण्यता सब पर।
कांग्रेस का यह दुस्साहस ही है कि वह अपना सबसे बड़ा सम्मेलन पूर्ण अधिवेशन ( प्लेनरी ) 8 और 9 अप्रैल को भाजपा के सबसे मजबूत राज्य गुजरात में कर रही है। उसके शासन वाले तीन प्रदेश थे। गर्मी के हिसाब से शिमला सबसे पसंदीदा जगह थी। 8 साल बाद वहीं से कांग्रेस की राजनीतिक वापसी तय हुई थी। 2003 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने वहां चिंतन शिविर आयोजित करके सत्ता में वापसी का नया रोड मेप बनाया था। पूरे विपक्ष को साथ लेकर चलने का। उससे पहले पचमढ़ी 1998 में एकला चलो तय किया था।
तो अपनी सरकार वाले शहर शिमला में न करके, कर्नाटक, तेलंगाना वाले कांग्रेस शासित राज्यों में भी न जा कर के और बिहार, जहां अभी इसी साल विधानसभा चुनाव हैं और सहयोगी दल आरजेडी के साथ वहां जीतने की भी अच्छी संभावनाएं हैं वह सब छोड़कर राहुल गांधी सीधे प्रधानमंत्री मोदी को उनके घर गुजरात जाकर चुनौती दे रहे हैं।
यही राहुल की ताकत है। अब निर्भर पार्टी पर है कि वह इस अवसर का कितना फायदा उठा पाती है। पूर्ण अधिवेशन का मुख्य काम होता है देशवासियों में उत्साह भरना। कांग्रेस जिसने आजादी के आन्दोलन का नेतृत्व किया है पूरे देश की इच्छाओं आकांक्षाओं को प्रतिबिम्बित करती रही है।
1920 में कोलकाता से असहयोग आंदोलन का आह्वान किया था। 1929 में लाहौर में अपना लक्ष्य पूर्ण स्वराज घोषित कर दिया था। जी हां यह सब हम कांग्रेस के अधिवेशनों की ही बात बता रहे हैं। कांग्रेस मतलब देश में ही नहीं पूरी दुनिया में हिन्दुस्तान की आवाज। यह मौका आरएसएस के पास भी था।
आजादी से 22 साल पहले बन गई थी। मगर वह उस समय भी नफरत और विभाजन के अजेंडे पर ही काम कर रही थी। दलित, पिछड़े, आदिवासी, महिला के समान अधिकारों का विरोध कर रही थी। और गांधी इन सबकी आवाज उठा रहे थे इसलिए उनके खिलाफ सबसे ज्यादा नफरत फैला रही थी। सरदार पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाते हुए यह कहा था कि इनकी जहरीली विचारधारा के कारण ही महात्मा गांधी की जान गई।
बहरहाल हम बता रहे थे कांग्रेस के अधिवेशनों का महत्व। तो फिर 1942 में मुम्बई में सीधा अंग्रेजों भारत छोड़ो प्रस्ताव पास कर दिया गया। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने रखा था। जो गांधी जी के साथ संघ और भाजपा के सबसे ज्यादा निशाने पर रहते हैं।
खैर तो कांग्रेस के अधिवेशन देश में हमेशा से क्रान्तिकारी पैगाम लाते रहे हैं। आजादी के बाद देश का सबसे बड़ा आर्थिक फैसला जो अभी भी भारत की अर्थव्यवस्था को संभाले हुए, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, उसका फैसला इन्दिरा गांधी ने 1969 में बंगलूरू अधिवेशन में किया था। इतिहास भरा पड़ा है कांग्रेस के अधिवेशनों और देश की तरक्की का। नई सोच नई हिम्मत देने का और पार्टी के लिहाज से खुद को परिवर्तित करने का।
आज कांग्रेस बहती नदी से, एक रूका हुआ तालाब बन गई है। राहुल जैसा बिल्कुल न डरने वाला नेता है। उनके जैसे ही साहसी अध्यक्ष। मल्लिकार्जुन खरगे जब अध्यक्ष बने थे तो किसी को उम्मीद नहीं थी कि वे एक अलग और बड़े व्यक्तित्व के साथ दिखेंगे। मगर खरगे ने एक तरफ साहस के साथ भाजपा और संघ का मुकाबला किया तो दूसरी तरफ पार्टी में समन्वय के साथ काम।
इससे अच्छी जोड़ी राजनीति में मिलना मुश्किल है। मगर परिणाम नहीं आ रहे। यह काम इन दोनों का और इनके साथ जुड़ी टीम का होता है। टुकड़ों-टुकड़ों में कई अच्छे रंग उभरते हैं। मगर पूर्णता में कांग्रेस उठ रही है ऐसा विश्वास नहीं बन रहा है।
मोदीजी की कमजोरी कांग्रेस का लाभ! समय किसी का नहीं रहता जैसी बातें ठीक हैं। या एक वह वर्ग भी है जो चुनाव आयोग ऐसा है कहकर सारी बात ही खतम कर देता है। मगर चुनाव आयोग ऐसा है, बाकी संवैधानिक संस्थाएं ऐसी हैं कहने से तो चीजें नहीं बदलेंगी। सीधी बात है कि जब तक मोदी हैं तब तक चुनाव आयोग और बाकी संस्थाएं ऐसी ही रहेंगी। पहले मोदी को ही हटाना पड़ेगा। और इन संस्थाओं के रहते उनसे लड़ते उन पर दबाव बनाकर उन्हें गैरकानूनी कामों के रोज परिणाम बताते हुए। और सबसे बड़ी बात अपनी कमियों को दूर करते हुए।
यही वह बात है जो अहमदाबाद में होना चाहिए और उसका हल निकलना चाहिए। वहां पहले दिन 8 अप्रैल को कांग्रेस वर्किंग कमेटी पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारक ईकाई (सीडब्ल्यूसी) की ही मीटिंग है। याद रखना चाहिए कि इससे पहले की दो सीडब्ल्यूसी की मीटिंग दिल्ली और बेलगावी में अध्यक्ष खरगे ने पार्टी की अन्दरूनी समस्याओं की गहरी पड़ताल की और जितनी सुना सकते थे उतनी खरी-खरी सुनाईं। गुटबाजी अकर्मण्यता सब पर। और रही सही कसर नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने अहमदाबाद के पिछले महीने ही हुए एक कार्यकर्ता सम्मेलन में यह कहकर पूरी कर दी कांग्रेस में आधे भाजपाई हैं।
अब क्या बचा। डायग्नोस ( रोग की पहचान ) हो गया। सारी जांच पड़ताल हो गई। मरीज ऑपरेशन टेबल पर आ गया। मगर लास्ट मिनट में ऑपरेशन करने वाली टीम में एक नया डाक्टर शामिल कर लिया। राजीव शुक्ला ! सीडब्ल्यूसी का परमानेंट इनवाइटी बनाकर। स्थायी आमंत्रित।
क्यों? राजीव शुक्ला हिमाचल प्रदेश के प्रभारी थे। उन्हें पिछले दिनों हटा दिया। हटाने के बाद उनकी सीडब्ल्यूसी की सदस्यता खत्म हो गई। वहां वापस लाने के लिए मीटिंग से ठीक पहले उन्हें स्थायी आमंत्रित बना दिया।
याद रखिए केवल एक अपाइंटमेंट हुआ है। और प्लेनरी की मीटिंग से ठीक पहले एक होने का मतलब अत्यन्त महत्वपूर्ण। कांग्रेस इसी तरह के मैसेज देती है। सब किए धरे पर पानी। कांग्रेस की भाषा में इसे कहते हैं एडजस्ट करना। हर हाल में यह एडजस्ट होते हैं।
तो लड़ाई चुनाव आयोग से ठीक है। मगर यहां का यह चुनाव कांग्रेस ने ही किया है। उनके साथ गोदी मीडिया है। मगर वह भी कल से बहुत लिखने बताने के बाद भी यह नहीं बता पा रही कि राजीव शुक्ला अपरिहार्य क्यों हैं। मोदी की भाजपा में कोई एक भी है?
कांग्रेस ने बाकायदा घोषणा की है कि यह संगठन का साल है। और उस साल का यह पूर्ण अधिवेशन हो रहा है। नए लोगों के साथ कांग्रेस को जाना चाहिए था। मगर ज्यादातर पदाधिकारी पुराने। केवल बिहार पूरा बदला है। और यूपी के जिलाध्यक्ष। अच्छी बात है। मगर बाकी सब बदलने में क्या दिक्कत थी। ऐसा नहीं है कि बदलने का मतलब सब बदलना ही। उन्हें भी जारी रख सकते हैं।
मगर इसकी भी सूची निकलती है। प्रदेश अध्यक्ष नहीं बदले। वह नहीं बदले तो जिन जिला अध्यक्षों का अभी दिल्ली में सम्मेलन किया वे भी नहीं बदले।
कांग्रेस यथास्थितिवाद का शिकार हो गई है। वह पार्टी जो देश में परिवर्तन की वाहक मानी जाती है। विचार आज भी उसके प्रगतिशील हैं। मगर उन विचारों को आगे बढ़ाने वाला संगठन नहीं है।
एक उदाहरण देखिए। राहुल गांधी का आज सबसे बड़ा मुद्दा क्या है? अभी सीपाआईएम की मदुरई कांग्रेस ( महाअधिवेशन) ने भी उसका समर्थन कर दिया। जाति से हटकर वर्ग की बात करने वाली देश की सबसे बड़ी लेफ्ट पार्टी ने। मतलब मुद्दा बहुत बड़ा है। जाति गणना का। देश की राजनीति बदल देगा। मगर क्या कांग्रेस उसके लिए अपना संगठन तैयार कर पाएगी?
अहमदाबाद में सबसे बड़ा सवाल यही होगा। कांग्रेस के लिए अवसर भी चुनौती भी!?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)